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राजनीतिक दलों ने टिकट देने के मामले में महिलाओं की आधी आबादी को हाशिये पर धकेला.पढ़े खबर……

महिलाओंं के वोट तो चाहिए लेकिन टिकट नहीं देंगे

दिनेश शास्त्री

आंदोलन की कोख से उपजे उत्तराखंड राज्य में महिलाओं की सबसे ज्यादा भागीदारी रही है। जल जंगल जमीन के आंदोलन हॉ या नशा नहीं रोजगार दो आंदोलन हो या खीराकोट का आंदोलन हो। विश्व प्रसिद्ध चिपको आंदोलन को कौन भूल सकता है जिसका नेतृत्व गौरा देवी ने किया और उसके आधार पर कई लोग सर्वोच्च सम्मान पाने में सफल रहे।
थोड़ा इतिहास में झाँक लें तो हम पाते हैं कि मुग़ल सेना के दांत खट्टे कर उनके नाक कान काटने वाली नाक काटी रानी महारानी कर्णावती इसी भूभाग की तो थी। कुमाऊं में जिया रानी को तो आज तक पूजा जा रहा है और वीर बाला तीलू को कौन भुला सकता है, जिसने अपने पराक्रम से कत्यूरो को खदेड़ डाला था। क्या वह नेतृत्व का अनुपम उदाहरण नहीं है?
आज की बात करें तो एवरेस्ट को फतह करने वाली बच्छेन्द्री पाल, चन्द्रप्रभा एतवाल, हर्षवन्ती बिष्ट, नूतन् वशिष्ठ और सागर परिक्रमा करने वाली वर्तिका जोशी और पिछले साल ओलम्पिक में हॉकी में नाम कमाने वाली वंदना कटारिया हर क्षेत्र में प्रदेश की नारी शक्ति ने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है। उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन में शहादत देने वाली बेलमती चौहान और हंसा धनाई को कौन भूल सकता है। इसके अलावा कौशल्या डबराल हो या सुशीला बलूनी हो ऐसे नामों की लम्बी फेहरिस्त है। यनी जीवन का ऐसा कोई क्षेत्र् नहीं है जिसमें इस धरती की मातृशक्ति ने बढ़ चढ़ कर भूमिका न निभाई हो। तो फिर ऐसा क्या हुआ कि जब भी चुनाव आते हैं तो उन्हें हाशिये पर धकेल दिया जाता रहा है। प्रदेश विधानसभा में आज तक महिलाओं की भागीदारी या प्रतिनिधित्व कहें, दस फीसद से आगे नहीं बढ़ पाया है जबकि आज हमारे ही पड़ोस में 40 फीसद टिकट महिलाओं को देने बात आप सबने सुनी होगी।
यहाँ उत्तराखण्ड में आधी आबादी को राजनीति में उसका हक देने के लिए कोई तैयार नजर नहीं आता। सत्तासीन भाजपा भी बमुश्किल 70 में से सात सीटों पर महिलाओंं को टिकट दे पायी। हालांकि अन्य दलों की तुलना में उसका रिकॉर्ड बेहतर माना जा सकता है कि उसने दस फीसद महिलाओं को टिकट दिया। ये हैं शैलारानी रावत, ऋतु खंडूड़ी, रेनू बिष्ट, सरिता आर्या, रेखा आर्या, देवयानी और चन्द्रा पंत। इसके विपरीत सत्तारोहण के लिए दावे करने वाली कांग्रेस महिलाओं पर भरोसा करने में बहुत कंजूस साबित हुई। उसने कुल पाँच महिलाओंं को टिकट दिया। उनमें भी एक तो अनुपमा रावत खुद पूर्व सीएम हरीश रावत की बेटी हैं। यह परिवार का कोटा हुआ, अन्य प्रत्याशियों में ममता राकेश, गोदावरी थापली, अनुकृति गुसाई और मीना शर्मा हैं। सीट 70 और महिलाओंं को कुल पाँच टिकट? यह तो बेइन्साफी ही कहीं जा सकती है।
समाजवादी पार्टी ने एक महिला को मैदान में उतारा। उसकी स्थिति प्रदेश में बहुत ज्यादा असरदार भी नहीं है लेकिन परिवर्तन की राजनीति का मॉडल पेश करने के लिए उतरी आम आदमी पार्टी को भी तो महिलाओंं पर भरोसा नहीं जगा। आप ने बबीता, मनोरमा त्यागी, सुनीता टम्टा और डिम्पल सिंह को मैदान में उतारा है जबकि हाल के महीनों में कई नामी महिलाएं पार्टी से जुड़ी थी लेकिन टिकट देने में वह भी महिलाओंं पर भरोसा नहीं कर पायी। आप खुद देख लीजिए, वर्षभर नारी शक्ति का गुणगान करने वाली पार्टियों की महिलाओं के प्रति सोच क्या है। क्या उन्हें सिर्फ नारे लगाने और भीड़ जुटाने तक ही सीमित रखा जाना चाहिए? यह सवाल इन दलों के साथ आप से भी पूछा जा सकता है। आखिर इस लोकतंत्र के आप भी भागीदार हैं।
इनके अलावा कुछ निर्दलीय महिलाओं ने चुनाव मैदान में ताल ठोकी है लेकिन उनकी संख्या कितनी है?
अब आपको एक और हकीकत से रूबरू कराया जाना जरूरी है। बीते चुनाव में हो या उससे पहले, कोई भी आंकड़ा उठा लीजिए, मतदान में सर्वाधिक योगदान महिलाओंं का रहा है। यानी मतदान में पुरुष हमेशा पीछे रहे हैं और महिलाओं का प्रतिशत हमेशा ऊँचा रहा है। यानी आपको महिलाओं का वोट तो चाहिए लेकिन उनको टिकट नहीं देंगे। दरी बिछाने, भीड़ जुटाने और नारेबाजी के लिए महिलाओंं को आगे किया जाएगा लेकिन जब सत्ता की मलाई खाने की बात होगी तो योग्यता का हवाला दिया जाएगा। यह प्रहसन नहीं तो क्या है? क्या यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि जब एक प्रदेश में आप 40 फीसद टिकट महिलाओंं को देने की बात करते हैं तो दूसरे प्रदेश के लिए वह पैमाना क्यों बदल जाता है? भौगोलिक परिस्थिति का तर्क तो इस मामले में मिसफिट ही कहा जाएगा। क्यों आधी आबादी को उसका हक देने के लिए पार्टियां तैयार नहीं हैं? यह सवाल तब भी पूछा जाएगा जब चुनाव सम्पन्न हो जाएँगे।
हम मान लेते हैं कि टिकट की जोड़ तोड़, खरीद फरोख्त में उत्तराखण्ड की महिलाएं सक्षम नहीं हैं लेकिन इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि योग्यता के मामले में वे कहीं से कम हैं। देखा जाए तो यह राज्य ही महिलाओं के पराक्रम से बना है लेकिन राज्य बनने के बाद उन्हें घसियारी बना कर रख दिया गया है। इस हालत में यही कहा जा सकता है –
वक़्त गुलशन पे पड़ा तो लहू हमने दिया, अब बहार आई तो कहते हैं तेरा नाम नहीं।
इस बारे में आप भी सोचें और कम से कम उन दलों को लानत तो भेज ही दें, जो नारी शक्ति का गुणगान करते अघाते लेकिन जब हक देने की बात आती है तो मुँह सिल देते हैं।

टीम यमुनोत्री Express

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