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मतदान का प्रतिशत रहा है बेहद कम ,नोटा ने बढ़ा दी सल्ट में प्रमुख दावेदारों और समर्थकों की धड़कनें ,जाने क्या रहा खेल….

अगर नोटा सचमुच हजार का आंकड़ा छू गया तो हार – जीत का अंतर भी सिमट सकता है।

दिनेश शास्त्री
देहरादून। अल्मोड़ा जिले की सल्ट विधानसभा सीट के लिए हुए उपचुनाव में गांव की चौपालों पर हो रही चर्चा में फिलहाल नोटा मुख्य विषय बना हुआ है। इस उपचुनाव में 2017 के विधानसभा चुनाव से भी कम मतदान हुआ है। इसका बड़ा कारण कोरोना भी हो सकता है। कारण यह कि 96241 मतदाताओं वाली इस सीट पर 49193 पुरुष तथा 47048 महिला मतदाता हैं। वर्ष 2017 में जहां 45.74 फीसद मतदाताओं ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया था, इस बार यह आंकड़ा घट कर 43.28 फीसद पर रहा यानी सीधे तौर पर 2.46 फीसद की कमी।
यह कमी क्या दर्शाती है? निसंदेह सवाल बड़ा है। यह सच है कि पहाड़ के अन्य निर्वाचन क्षेत्रों की तरह यहां भी प्रवास पर रहना लोगों की नियति है। पिछले एक वर्ष के दौरान कोरोना के दौरान दिल्ली तथा अन्य शहरों में रह रहे लोग अपने घरों को लौटे थे। स्थिति कुछ सुधरी तो वे लोग वापस चले गए लेकिन अचानक फिर कोरोना की दूसरी लहर ने उन्हें मताधिकार के लिए आने लायक नहीं बनाया। कम मतदान का यह प्रमुख कारण रहा है।
लगे हाथ यहां से पलायन का कारण भी समझ लिया जाए। रामगंगा घाटी से लगे इलाकों में पेयजल और सिंचाई सुविधा कमोबेश ठीक मानी जा सकती है लेकिन बाकी सल्ट बुरी तरह पानी की समस्या से जूझ रहा है। स्याल्दे से पंपिंग योजना का नाम लोग काफी समय से सुनते आ रहे है, लेकिन हलक लोगों के प्यासे ही हैं। सल्ट का ऊपरी इलाका कभी लखोरिया मिर्च के लिए जाना जाता था। पूरे परिवार की दाल में एक मिर्च पीस ली जाए तो पर्याप्त होता था, किंतु पिछले करीब एक दशक से अनियमित वर्षा के कारण इस इलाके की पहचान लखोरिया मिर्च का उत्पादन अब न्यून हो गया है। यही हाल बाकी फसलों का भी है। मानिला के वन विभाग के बंगले में लगा हैंड पंप पीने योग्य पानी नहीं देता, उसका पानी मटमैला ही निकलता है। ऊंचाई पर होने से रात की ओस पतनाले के जरिए टंकी में जमा की जाती है। तब जाकर बाथरूम का काम चलता है। पीने के लिए तो या तो बोतल बंद पानी ले जाओ या फिर दूर स्रोत से लाना पड़ता है। यह हाल सरकारी सिस्टम का है। आम लोगों की स्थिति आसानी से समझी जा सकती है। प्रकृति की ओर से खूबसूरती के साथ संवारे गए इस इलाके को पानी की गंभीर समस्या से जूझना पड़ रहा है। पारंपरिक स्रोत सूख गए हैं। विनाे नदी की क्षमता इतनी नहीं कि लोगों के हलक तर कर सके।
कमोबेश ज्यादातर इलाकों का यही हाल है। ऊपरी इलाकों में नागचुलाखाल से लेकर मार्चुला तक सिंचाई तो कल्पनातीत ही है। जैसे तैसे पीने के पानी का इंतजाम हो रहा है। आने वाला कल कैसा होगा, अनुमान आप भी लगा सकते हैं। पलायन की समस्या का बड़ा कारण आप इससे समझ सकते हैं और कम मतदान का कारण भी।
अब आइए मुख्य मुद्दे पर। सराइखेत के ख्यात सिंह रावत बताते हैं कि सल्ट के लोगों ने पहली बार नोटा का सर्वाधिक इस्तेमाल किया है। राजनीतिक दृष्टि से सक्रिय श्री रावत का अपना गणित होगा लेकिन कई अन्य लोगों ने भी इस बात की तस्दीक की। हमें यह नहीं भूलना होगा कि कभी सल्ट के नामी नेता रहे रणजीत सिंह रावत पार्टी की राजनीति में हाशिए पर हैं। वे अपने बेटे को टिकट चाहते थे लेकिन टिकट नहीं मिला तो वे इलाके में सक्रिय नहीं दिखे। अपने समर्थकों को उनका इशारा क्या रहा होगा, यह आसानी से समझा जा सकता है। नोटा की संख्या का अनुमान भी इसी से लगाया जा रहा है। दूसरे 17 अप्रैल को मतदान के दिन भी कई लोगों ने इस बात की ओर इशारा किया था। हालांकि एक अन्य जागरूक व्यक्ति झाकड सिंह नेगी इससे इत्तफाक नहीं रखते लेकिन इतना जरूर मानते हैं की मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था से आजिज aa गए लोग नोटा का इस्तेमाल करने लगे है। स्याल्दे में पंकज जोशी ने भी माना कि कई मतदाताओं ने नोटा का बटन दबाने की बात दावे के साथ कही है।
जाहिर है कम मतदान के बीच अगर एक हजार उदासीन मतदाताओं ने भी नोटा का बटन दबाया है तो हार – जीत का अंतर कितना रहेगा, आसानी से समझा जा सकता है। वैसे पिछले चुनाव में भी तो तीन हजार के नीचे ही तो मार्जिन था। इस स्थिति में चुनाव मैदान में उतरे मुख्य दावेदारों और उनके समर्थकों के दिल की धड़कन कैसे नहीं बढ़ेगी? दो मई को जब भिकियासैंण में ईवीएम खुलेंगी, तो पहला सवाल ही यह हो सकता है कि नोटा ने कितना डेंट मारा। एक तरह से कुल 41000 हजार वोटों में से हार – जीत भी तो हजार – दो हजार से ही होने की संभावना जानकार लोग व्यक्त कर रहे हैं। इस स्थिति में नोटा का महत्व समझा जा सकता है। बहरहाल दो मई तक इस तरह की चर्चाएं तो चलती ही रहेंगी।

टीम यमुनोत्री Express

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