सुनील थपलियाल उत्त्तरकाशी
पुरोला।
राजनीति जब जनहित की पटरी से उतरती है तो उसका विद्रूप चेहरा जनमानस के मन में वितृष्णा का भाव भर देता है। कुछ इसी तरह का परिदृश्य आजकल पुरोला क्षेत्र में दिख रहा है।
अक्सर देखा जाता है कि जब भी लीक से हट कर कोई कार्य होता है तो नेताओं में उसका श्रेय लेने की होड़ मच जाती है और स्थिति मारामारी की बन जाती है। इसका प्रमाण देखना हो तो कुछ पल उत्तराखंड के पुरोला विधानसभा का परिदृश्य देखने के लिए निकालिए। यहां श्रेय लेने की राजनीति सर चढ़ कर बोल रही है। उत्तरप्रदेश के समय पर्वतीय विकास मंत्री रहे स्व. बर्फियां लाल जुवांठा के कार्यकाल में हुआ क्षेत्र में जो विकास हुआ, उसकी कोई बराबरी नहीं कर सकता। यहां तक कि उस मॉडल का अनुसरण करने को भी कोई तैयार नहीं है, जबकि विशाल उत्तर प्रदेश की तुलना में आज अपने पृथक राज्य में विकास कार्य कराने के लिए परिस्थितियां ज्यादा अनुकूल हैं।
हमारा उद्देश्य किसी पर आक्षेप करना नहीं बल्कि क्षेत्र की सिर्फ हूबहू तस्वीर पेश करना है। स्थिति यह है कि श्रेय मिजाजी लोग खास मिसाल पेश कर लेते हैं, तब वह इतिहास में अपना नाम दर्ज कराने पर भी उतारू हो जाता हैं। भले ही वह किसी भी रूप में हों? आज जहां देखें वहां केवल श्रेय लेने की होड़ दिखती है। ऐसा लगता है, जैसे गली-गली में ‘श्रेय की दुकान’ खुल गई है और वहां से जो जब चाहे, तब ‘श्रेय’ खरीद कर ले लाए। जैसे, बाजार से हम कोई खरीद कर ले आते हैं, फिर अपना एकाधिकार जमाने में उसे कहां देर लग सकती है?
वर्तमान देखे तो श्रेय लेने का महारथी होना भी बड़ी बात है, क्योंकि यह श्रेय तभी लिया जाता है, जब खुद के लिए उपलब्धि या महानता दर्शाने की बात हो। बाकी समय, यही श्रेय कौड़ी काम की नहीं होती? हद तो तब हो जाती है, जब ‘श्रेय’ को हथियाने की कोशिश की जाती है। कोई श्रेय दें या न दें, मगर मन किया तो खुद ही ‘श्रेय’ की मशाल लेकर निकल पड़े, गलियों में और फिर थपथपाने लगे अपनी पीठ। ऐसा नजारा मुझे लगता है, आपने भी कहीं न कहीं जरूर देखा होगा, क्योंकि श्रेय लेने का कीड़ा भी उपलब्धि के नाम पर रेवड़ी बटोरने वाले को ही काटते रहता है तथा उसके मुंह से बस ‘श्रेय’ पाने के शब्द निकलते हैं।
आज हालात यहां तक आ गए हैं कि लोगों में मामूली बात पर भी श्रेय लेने होड़ नजर आ रही है। जब दो पियक्कड़ यह कहते फिरें कि किसने ज्यादा पी रखी है, और इस बात पर झगड़ा हो तो, ‘श्रेय’ के शुरूरी अंदाज को समझा जा सकता है।
वैसे हमारे तमाम नेता भी श्रेय लेने में माहिर नजर आते हैं। जब देखते हैं कि लोहा गरम है, उसी समय दे मारते हैं, श्रेय का हथौड़ा और जीत लेते हैं, श्रेय की बाजी। जनता तो बेचारी है ही, उसे बस इतनी बात समझ में आती है कि नेता जो मंच से कह दे, वही सही है। परदे के पीछे जो होता है, उसे वह कैसे समझ सकती है ? यहां करता कोई है और भरता कोई है ? बातों-बातों में नेता झगड़ते रहते हैं और श्रेय लेने की बाजीगरी साबित करते रहते हैं, मगर इस राजनीति के बंद सर्कस में ‘श्रेय’ की बयार बहती है, उसमें कोई नहीं बहता, सिवाय अवाम के।
वैसे मौका आने पर यही बाजीगर कब पलटी मार ले, कह नहीं सकते। अब देखिए, महंगाई को ही। महंगाई बेचारी डायन बन बैठी है और जनता बेबस होकर रह गई है? ऐसे मसलों में श्रेय का शुरूर नेताओं के दिमाग गायब हो जाता है। मेरे मुताबिक यही राजनीति है, जिसे कोई समझ न पाए और हमेशा घनचक्कर बन बैठे रहें और नेता, वोट की नाव में अपनी नोट की गंगा बहाते रहे। हालांकि, नोटों की गंगा बहाना भी शुरूर है, मगर यहां कोई किसी को श्रेय नहीं देता कि उसकी तिजोरी को किसने, कितनी भरी है? आइए एक उदाहरण देखिए – भारी आपदा के दौरान करीब 35 गांवों को जोड़ने वाली सड़क तीन माह से अवरुद्ध थी। विभाग ने बजट का रोना रोया तो स्थानीय लोगो की पहल पर एक जनप्रतिनिधि ने जेसीबी चलवा कर छोटे वाहनों के लिए मार्ग खुलवा दिया। अब ऐसे नेता को श्रेय न मिल जाए तो राजनीति शुरू हुई और सूत्र की माने तो उस नेता के विरुद्ध विभाग के अधिकारी को दबाब में लाकर कार्यवाही की पेशकश तक कि गई । यानी आप खुद कुछ न करें और कोई दूसरा लोगों को राहत पहुंचाने की कोशिश करे तो यह बर्दाश्त नहीं होता। लोगों को याद है कि जिस तरह विकास के युग का सूत्रपात हुआ था, उनके बाद कोई दूरदृष्टा उभर नहीं रहा है, यहां तो केकड़ों की स्पर्धा ज्यादा दिखती है कि जार से बाहर कैसे कोई केकड़ा निकल सकता है। इस पर जनता की नजर तो है लेकिन उसे अपना निर्णय सुनाने के लिए पांच साल में सिर्फ एक बार मौका मिलता है और उस समय भी कई कारक होते हैं जब कई बार निर्णय लेने में चूक हो जाती है।
टीम यमुनोत्री Express