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उत्तरकाशी बड़ी खबर राज्य उत्तराखंड

बनाल क्षेत्र के देवलांग पर्व का विशेष महत्व: पं०अरूण नौटियाल

बड़कोट /अरविन्द थपलियाल। भव्य एवं दिव्य होगा 65/70 गांव पट्टी बनाल रामा सेरांईं शाठीबील साठी थोक पांशीबील पांसाई थोक रियासत का संयुक्त महासू राजा रघुनाथ जी का राजकीय महापर्व देवलांग ।।

पंडित अरूण नौटियाल ने बताया कि देवभूमि उत्तराखंड के सीमांत जनपद उत्तरकाशी का यमुना व टोंस घाटी का क्षेत्र रवांई नाम से प्रसिद्ध है जनपद का यह पश्चिमोत्तर क्षेत्र उत्तर में स्वर्गारोहिणी, बंदरपुंछ जैसी हिमाच्छादित पर्वतश्रेणियों व उत्तर पश्चिम में हिमाचल प्रदेश तथा दक्षिण पश्चिम में जौनसार बावर से घिरा हुआ है रवांई क्षेत्र अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक धरोहर एवं रीति- रिवाज के लिए सदैव चर्चित रहा है , रवांई में कार्तिक की दिवाली की अपेक्षा मार्गशीर्ष की दिवाली अधिक उत्साह से मनाई जाती है , मार्गशीर्ष की इस दिवाली को मंगशीर की बग्वाल, बुढी दिवाली भी कहा जाता है , इसको मनाने के पीछे लोग अलग-अलग तर्क देते हैं, घाटी के बनाल क्षेत्र मे बग्वाल को देवलांग के रूप मे मनाया जाता है, समूची रवांई घाटी के इस सबसे बड़े महापर्व देवलांग की समृद्धता और विशालता को देखते हुए उत्तराखंड सरकार ने इसे राज्य स्तरीय मेला घोषित किया है | तहसील बड़कोट के बनाल व तहसील पुरोला के रामासिरांई – कमलसिरांई क्षेत्र के लगभग 65 – 70 गांव के आराध्य राजा रघुनाथ महासू जी के गैर बनाल मंदिर प्रांगण में समूची रवांई घाटी का यह सबसे बड़ा महापर्व मनाया जाता है , जिस प्रकार चार महासू देवता का जौनसार बावर , हिमाचल , फतेह पर्वत क्षेत्र शाठीबिल और पांशीबिल दो क्षेत्रों में विभक्त है उसी प्रकार व्यवस्था चलाने के लिए राजा रघुनाथ जी का बनाल – सेरांई क्षेत्र भी साठी – पानशाही दो थोकों में विभक्त है, विभिन्न क्षेत्रों के आधार परंपराओं में भी विभिन्नता पाई जाती है , महासू जागरों में जिस प्रकार रात भर चिड़ा जलाया जाता है उसी प्रकार रंवाई मे यह विशाल पर्व धूमधाम से मनाया जाता है | देवलांग के लिए देवदार के वृक्ष को विधि विधान से गैर के नटाण बंधु मंदिर प्रांगण में लाते हैं व रात्रि में बियांली के खबरियाण बंधु देवलांग को सजाने का कार्य करते हैं , स्थानीय बोली में ‘ देव ‘ का अर्थ इष्ट देव तथा ‘लांग’ का अर्थ खम्भे की तरह सीधे खड़े पेड़ से लगाया जा सकता है। इसमें लांग को इष्ट देवता का प्रतीक मानकर पूजने के बाद अग्नि को समर्पित किया जाता है। इसलिए इस पर्व का नाम ही ‘देवलांग’ पड़ा। देवलांग को जलाने के लिए क्षेत्रवासी मशाल लेकर आते हैं जिसे स्थानीय बोली में महासू कु ओल्ला कहा जाता है, रात्रि के अंतिम पहर में जैसे-जैसे अंधेरा छंटता है मंदिर प्रांगण में हजारों लोगों की भीड़ एकत्रित होने लग जाती है दोनों थोक के सभी ग्रामवासी ढोल , रणसिंघे , दमाऊ, ओल्लों के साथ झुमैलो , रास, तांदी, हारूल आदि नृत्य करते हैं | परंपरा के अनुसार कोटी – बखरेटी के बजीरों की पिठांई लगाई जाती है, श्री रघुनाथ जी अपने देवमाली पर अवतरित होकर छीमा टिक्का देकर देवलांग को उठाने की अनुमति देते हैं फिर होता है वह समागम जिस पर सबकी नज़रें टिकी होती है देवलांग के वृक्ष को उठाने का रोमांचक प्रयास, लाठी डंडों से इतने बड़े वृक्ष को उठाना है कोई आम बात नहीं होती | साठी और पानशाही लकड़ी से बनी कैंचियों से देवलांग को उठाने का प्रयास करते हैं इसमें देवलांग गिरती भी रहती है परंतु जोश खत्म नहीं होता अगर किन्हीं कारणवश देवलांग वृक्ष का शीर्ष भाग टूट जाता है तो तुरंत दूसरी देवलांग लाई जाती है | देवलांग की अंतिम अग्नि का विसर्जन भगवान मड़केश्वर महादेव के यहां किया जाता है , अब तो उजाले के लिए बहुत से संसाधन है परंतु पहले अमावस्या की उस अंधेरी रात मे मीलों दूर से लोग ओल्लों के प्रकाश से ही गैर पहुंचते थे | इस महापर्व को देखने देश भर से लोग आते हैं व रघुनाथ जी के दर्शन करके पुण्य के भागी बनते हैं | प्रत्येक घर मे इन दिनों पहाड़ी पकवान, चूड़ा कुठे जाते हैं, घरों को सजाया जाता है रास्ते साफ किये जाते हैं, अतिथियों का सत्कार किया जाता है | रघुनाथ जी को महासू राजा , बड़ देवता , मुलुकपति , कुल्लू काश्मीरा, नागादेवा आदि नामों से संबोधित किया जाता है , साठी थोक समिति , पानशाही थोक समिति, राजकीय देवलांग मेला समिति, युवा संगठन बनाल आदि इस मेले को संरक्षित रखने के लिए प्रयासरत है मेले में अराजकताओं को समाप्त करने के लिए पुलिस प्रशासन तैनात रहता है | मुलुकपति महासू राजा रघुनाथ जी के देवमाली श्री शयालिकराम गैरोला जी के अनुसार आधुनिकता के इस दौर में विलुप्त होती संस्कृति को संरक्षित करने की नितांत आवश्यकता है | वास्तव मे देवलांग संसार को तमसो मा ज्योतिर्गमय का संदेश देती हैl

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