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चम्पावत हादसे के मायने, सड़कें बढ़ी पर सुरक्षा घटी, कुछ तो करो सरकार, हादसे रोको।

 

देहरादून से वरिष्ठ पत्रकार गुणानन्द जखमोला

चम्पावत हादसे के मायने, सड़कें बढ़ी पर सुरक्षा घटी
– अवैज्ञानिक ढंग से बनी सड़कें और लचर पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम
– प्रदेश में हर दिन लगभग दो लोगों की हादसों में चली जाती है जान

22 फरवरी को तीन सड़क हादसों में 19 लोगों की जान चली गयीं। चम्पावत के कनकई गांव में एक साथ नौ चिताएं जलीं। ऐसी घटनाएं पहाड़ में आम बात है। लेकिन सरकार उदासीन रहती है। पिछले 21 साल में सरकारों ने अपनी कमाई के लिए सड़कों का निर्माण किया है। चारधाम महामार्ग के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित रवि चोपड़ा कमेटी के अध्यक्ष रवि चोपड़ा ने पिछले दिनों यह कहते हुए इस्तीफा दे दिया कि हिमालय में सभी के लिए मौत की घंटी बज रही है।

दरअसल पिछले 21 साल में सरकारों ने पहाड़ में सड़कों का जाल बिछा दिया। राज्य गठन के समय पूरे प्रदेश में 8 हजार किलोमीटर सड़कें थीं जो कि अब 45 हजार किमी हो गयी। सड़कें बनी लेकिन अवैज्ञानिक तरीके से। पहाड़ के अंधे मोड़ों से बचाव के लिए हिमाचल की तर्ज पर रेलिंग नहीं बनाई गयी। नजर चूकी, दुर्घटना घटी। सीधे खाई में। जियोलॉजिस्ट के अनुसार उत्तराखंड में सड़कों को मैदानी तर्ज पर बना दिया जाता है। जबकि इन सड़कों के कटान से लेकर चौड़करण तक वैज्ञानिक ढंग से होना चाहिए। सरकारों ने कुछ डेंजर जोन तो चिन्हित कर लिए, लेकिन बचाव के तरीके नहीं अपनाये।

हादसों की तह तक जाने से पता चलता है कि अधिकांश हादसे मैक्स या जीप के होते हैं। ओवरलोडिंग, फिटनेस न होना, अनियंत्रित गति, कानफोडू संगीत और बिना प्रशिक्षित ड्राइवर, हादसे का सबब बनते हैं। हादसे के बाद तुरंत रिस्पांस टीम भी नहीं है। राहत और बचाव में देरी से कई घायल दम तोड़ देते हैं। अधिकांश पर्वतीय जिलों में ट्रामा सेंटर भी नहीं हैं। 100-100 किमी तक अस्पताल भी नहीं मिलता तो घायल रास्ते में ही दम तोड़ देते हैं।

यातायात पुलिस या परिवहन विभाग चालकों के लिए कोई जागरूकता अभियान नहीं चलाते। सड़क सुरक्षा पखवाड़े के तहत केवल वाहनों के चालान होते हैं। चालकों को जागरूक नहीं किया जाता। चम्पावत हादसे की बात करें तो जीप में 16 व्यक्ति सवार थे। जबकि उसमें अधिक9 सवारी होनी थी। यानी 5 सवारियों की जान फ्री में चली गयी। दरअसल, पहाड़ के लोगों के पास विकल्प नहीं है। पहाड़ में सड़कों का जाल तो बिछ गया लेकिन सार्वजनिक परिवहन प्रणाली नाम की कोई चीज नहीं है। या तो मीलों पैदल चलो या मैक्स में सवार होकर जान गंवा दो। गर्मियों में चारधाम यात्रा होती है तो पहाड़ की मुश्किलें बढ़ जाती हैं। न बसें चलती हैं और न ही मैक्स मिलती हैं। ऐसे में पहाड़ का जीवन और दुश्कर हो रहा है। ग्रामीणों को जान हथेली पर रखकर ही यात्रा करनी होती है।

प्रदेश में सड़क हादसों पर बात करें तो पता चलेगा कि साल दर साल हादसों और मृतकों की संख्या बढ़ ही रही है। 2018 में 624 सड़क हादसे हुए, जिनमें 601 लोगों की मौत हुई और 1135 लोग घायल हुए। सितम्बर 2021 तक प्रदेश में 1010 सड़क हादसे हो चुके थे जिनमें 579 लोगों की मौत हुई और 789 लोग घायल हुए हैं। जो कि 2020 के मुकाबले करीब 42 प्रतिशत हादसे अधिक हुए हैं।

कहा जाता है कि किसी भी राज्य के विकास की पहचान वहां के पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम से होती है। गजब की बात यह है कि देहरादून स्मार्ट सिटी बन रही है लेकिन यहां भी इस तरह का पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम न के बराबर है और उस पर तुर्रा यह कि शहर में 49 डेंजर जोन हैं। यानी हादसों को आंमत्रित करते स्पॉट। कुछ तो करो सरकार। हादसे रोको।

सह आभार फेसबुक से

टीम यमुनोत्री Express

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