दिनेश शास्त्री
देहरादून। उत्तराखंड की जनता की आकांक्षाओं का केंद्रीय विषय गैरसैंण फिर गैर हो सकता है। सरकार बदली तो प्राथमिक टीवीताएं बदलना भी स्वाभाविक है। पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने बीते विधानसभा सत्र में मास्टर स्ट्रोक खेलते हुए गैरसैंण को कमिश्नरी बनाने की घोषणा की थी लेकिन अल्मोड़ा में खासकर इसका तीव्र विरोध हुआ। विरोध के कारण ज्यादातर राजनीतिक ही थे, क्योंकि कांग्रेस कभी नही चाहेगी कि लोक लुभावन कार्य में भाजपा उससे आगे निकल जाए या बाजी मार ले। इस कारण कुमाऊं में विरोध स्वाभाविक भी था। चमोली, रुद्रप्रयाग में तो इस फैसले का स्वागत ही हुआ था। दिक्कत बागेश्वर व अल्मोड़ा वालों को थी। नए मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत ने साफ कर दिया है कि इस मामले में सरकार जनभावना के अनुसार काम करेगी। जाहिर है गैरसैंण कमिश्नरी का मुद्दा पृष्ठभूमि में जाने वाला है। चुनावी वर्ष में सरकार कोई जोखिम क्यों उठाए, वह भी तब जबकि फैसले को तर्क की कसौटी पर खोटा करार दिया जा रहा हो।
कायदे से देखा जाय तो गैरसैंण को पहले जिला बनाया जाना चाहिए था, जिसके लिए लोग अर्से से संघर्षरत भी हैं, दूसरे बिना जिले के कमिश्नर क्या करेंगे, जाहिर है कमिश्नर और डीआईजी या तो गोपेश्वर बैठते या अल्मोड़ा, या गैरसैंण में कैंप करते। इससे लोगों को कितना फायदा होता, यह बाद की बात है। फिलवक्त तो फैसले के तात्कालिक हानि लाभ पर बात अटकी हुई है।
इससे पहले पिछले साल बजट सत्र के दौरान ही त्रिवेंद्र सिंह ने गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित किया था तो पहाड़ के लोगों ने फैसले को हाथो हाथ लिया था। इसे उत्तराखंड के पर्वतीय विकास की दिशा में पहला कदम भी माना गया था। लेकिन समय की गति न्यारी होती है। दूसरे बजट सत्र में त्रिवेंद्र ने मास्टर स्ट्रोक खेला और उसके साथ ही बोल्ड हो गए। हालांकि बोल्ड होने का कारण यह मास्टर स्ट्रोक नही था, वे तो भाजपा के अपने अंतर्विरोध थे, जिसकी पृष्ठभूमि बहुत पहले से बनी हुई थी। बिशन सिंह चुफाल जैसे नेता हाशिए पर धकेले गए थे, पूर्ण सिंह फर्त्याल जैसे विधायक लगातार सरकार के सामने असहज स्थिति उत्पन्न कर रहे थे। गढ़वाल में भी भाजपा का कुनबा बहुत संतुष्ट नहीं था, और भी तमाम कारण थे, जिनकी वजह से त्रिवेंद्र को जाना पड़ा।
अब नए मुखिया के सामने इन्ही सब चुनौतियों का अंबार है। त्रिवेंद्र की बोई फसल को काटना उनकी नियति है, नतीजा चाहे जो भी हो, लिहाजा डैमेज कंट्रोल के लिए यही रास्ता बचता है कि गैरसैंण कमिश्नरी का मुद्दा फिलहाल ठंडे बस्ते में डाल दिया जाए। लोगों के मूड को देखते हुए उनके पास कमिश्नरी के मुद्दे पर पुनर्विचार करने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं रह गया था। हां एक विकल्प हो सकता था कि गैरसैंण को जिला घोषित कर दें, लेकिन यह बर्र के छत्ते में हाथ डालने से कम जोखिम वाला काम नहीं है। गैरसैंण को जिला बनाने का मतलब पहले से लाइन मे कोटद्वार, यमुनोत्री, डीडीहाट और दूसरे इलाकों में जिले बनाने की मांग भी साथ ही पूरी करनी होगी और यह काम इतना आसान नहीं है। नीति आयोग को इसके लिए तैयार करना होगा, उसका बजट कितना बैठेगा, सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। ऐसे में रास्ता यही बचता है कि फिलहाल मामले को टाल दिया जाय, दूसरे जब लोग खुद नहीं चाहते कि गैरसैंण कमिश्नरी बने तो अनावश्यक विवाद को तूल देने से बेहतर यही है की जन भावना के हवाले से फैसला निरस्त किया जाय और अंततः वही होने जा रहा है।
इस फैसले का नकारात्मक पहलू एक ही है कि पहाड़ की उन्नति की दिशा में बढ़ रही गाड़ी पर ब्रेक सा लग सकता है, क्योंकि लोगों की उम्मीद बंध गई थी कि ग्रीष्मकालीन राजधानी के बाद कमिश्नरी की घोषणा के बाद देर सवेर एक दिन गैरसैंण जिला भी बनेगा और कभी न कभी स्थाई राजधानी भी बन सकता है। फिलहाल यह चेप्टर क्लोज होने जा रहा है। पहाड़ की उम्मीदों को अब कब पंख लगेंगे यह देखने वाली बात होगी।
टीम यमुनोत्री Express